Sunday, September 6, 2009

असंवेदनशीलता : शिक्षा की खलनायिका

इस शिक्षक दिवस पर हर बार की तरह मुझे मेरे वे शिक्षक एक बार फिर याद आए जिनकी दी हुई शिक्षा की बदौलत मैं यहां तक पहुंचा। पर ये शिक्षक केवल स्‍कूल में नहीं थे। स्‍कूल के बाद और उसके बाहर की दुनिया में मैंने बहुत कुछ जाने अनजाने कई सारे लोगों से सीखा। वे सब मेरे शिक्षक हैं। सबको मेरा प्रणाम। कभी विस्‍तार से इनके बारे में जरूर लिखूंगा।


आज कुछ ऐसी बातों का जिक्र करना चाहता हूं जिनका उल्‍लेख करना शायद अशालीनता समझा जाए। पर मुझे लगता है हर सिक्‍के के दो पहलू होते हैं। आप हमेशा एक ही पहलू को देखते नहीं रह सकते। इसीलिए मैं यह अशालीनता कर रहा हूं।

मेरी दादी अब नहीं हैं। होतीं तो सौ साल की होतीं। उन्‍नीस सौ सत्‍तासी में उनका देहांत हो गया था। मप्र के छतरपुर जिले की बिजावर रियासत में वे पैदा हुईं। वे स्‍कूल गईं, लेकिन केवल कुछ दिन ही। जब हम उनसे पूछते कि उन्‍होंने स्‍कूल क्‍यों छोड़ दिया। तो वे ठेठ बुन्‍देली अंदाज में अपने मास्‍टर को कोसतीं। फिर अपने बाएं हाथ की मध्‍यमा को दिखाकर कहतीं, ‘ठठरी बंधे ने जामें(इसमें) इतने जोर से छड़ी मारी कि अब तक पिरात (दुखती) है।’ और उनके चेहरे पर एक असहनीय पीड़ा और आंखों में क्रोध उतर आता। हम थोड़ी देर के लिए सहम जाते।

मैं 1975 में ग्‍यारहवीं मैं था। इटारसी के पीपल मोहल्‍ला के हायर सेंकडरी स्‍कूल में। उन दिनों हर मां-बाप की इच्‍छा थी कि उनकी संतान या तो इंजीनियर बने या फिर डॉक्‍टर। किसी और प्रोफेशन के बारे में न तो सुनते थे, न मां-बाप जानते थे। मैंने बायलॉजी लिया था। मतलब कि डॉक्‍टर बनने की इच्‍छा रखता था। हमारे एक पीटी टीचर थे-चौहान सर। वे रोज प्रार्थना करवाते। किसी न किसी बहाने वे हमारी कक्षा को यह कहने से नहीं चूकते कि इनके बाप तो कंपाउडर भी नहीं बने, ये डॉक्‍टर बनने चले हैं। उनके ये शब्‍द पिघले सीसे के तरह कान में उतरते थे। हम लोग अपमान से भरे सिर झुकाए बस सुनते रहते।

छोटी बहन ममता अब 35 पार कर चुकी है। उसने आठवीं के बाद से स्‍कूल से मुंह मोड़ लिया था। उसकी शिक्षिका अंग्रेजी में कमजोर होने के लिए हमेशा ताने कसती थी। बहुत समझाने के बाद भी उसने स्‍कूल जाना स्‍वीकार नहीं किया।

बड़ा बेटा कबीर 23 का हो गया है। हमने उसे भोपाल के एक जाने-माने अंग्रेजी माध्‍यम स्‍कूल में दाखिल करवाया था। जब वह दूसरी में था,तो उसकी शिक्षिका भी अंग्रेजी पर ताने कसती थी। ऐसे ताने जो बच्‍चे की अस्मिता को चोट पहुंचाते थे। वह कहती क्‍यों अपने मां-बाप के पैसे बरबाद कर रहे हो। जाओ किसी हिन्‍दी स्‍कूल में पढ़ो। ये ताने बच्‍चे को तो मानसिक रूप से चोट पहुंचाते ही थे, उसके नन्‍हे मुंह से सुनकर हम भी पीड़ा से भर उठते थे। मेरी और पत्‍नी की अंग्रेजी भी इतनी अच्‍छी नहीं थी कि हम उसे घर में मदद कर पाते। अंतत: हमने उसे वहां से निकालकर हिन्‍दी माध्‍यम स्‍कूल में डाला। नतीजा यह हुआ कि कई अन्‍य कारणों से उसने बारहवीं तक चार स्‍कूल बदले।

छोटा बेटा उत्‍सव बड़े से पांच साल छोटा है। जब बड़े बेटे को अंग्रेजी माध्‍यम स्‍कूल से निकालकर हिन्‍दी माध्‍यम स्‍कूल में डाला तो उसके साथ छोटे को भी नए स्‍कूल में दाखिल करवाया। बड़ा तीसरी में था। छोटा नर्सरी में। पन्‍द्रह दिन सब ठीक चला। एक दिन छोटे ने जिद पकड़ ली कि वह बड़े के साथ बैठेगा। शिक्षिका ने नाराज होकर उसके कान कुछ इस तरह खींचे कि उसने स्‍कूल न आने का ऐलान कर दिया। फिर वह अगले साल ही स्‍कूल गया।

मैं सोचता हूं दादी स्‍कूल गईं होतीं तो शायद उन्‍होंने हफ्ता बाजार में मजदूरी नहीं की होती। दादी शादी के बाद अपने पति के साथ इटारसी आ गईं थीं। दादा रेल्‍वे में थे,एक एक्‍सीडेंट में उनकी मृत्‍यु हो गई थी। उसके बाद दादी को अपनी और बच्‍चों परवरिश के लिए इटारसी के हफ्ता बाजार में मजदूरी करनी पड़ी।

जहां तक मेरी जानकारी है मेरी ग्‍यारहवीं कक्षा से कोई डॉक्‍टर नहीं बना। पर चौहान सर के शब्‍द आज भी आत्‍मा पर चोट पहुंचाते हैं। वे किसी गाली से कम नहीं लगते हैं।

छोटी बहन अगर आगे पढ़ पाती तो उसे आज अपनी शिक्षा के बारे में बताने में संकोच नहीं होता। बड़े बेटे ने अगर चार स्‍कूल नहीं बदले होते तो उसकी दुनिया शायद कुछ अलग होती। छोटा अगर कान खींचने से आतंकित नहीं होता,तो उसका एक साल बरबाद होने से बच जाता।

ये सब कहानियां अलग-अलग समय की हैं। लगभग सौ साल के लम्‍बे समय में फैली हुईं। इनके नायक या नायिका अलग-अलग हैं। लेकिन इन सबमें खलनायक या खलनायिका एक ही है- वह है शिक्षक या शिक्षिका की असंवेदनशीलता। यह असंवेदनशीलता किस हद तक जिंदगी को प्रभावित करती है या कर सकती है यह इन कहानियों में और आगे जाकर देखा जा सकता है। बहुत संभव है आप के परिवार में या आपके आसपास भी आपको ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। उनके प्रभाव भी आप देख सकते हैं।

क्‍या इस खलनायक को यानी असंवदेनशीलता को नष्‍ट किया जा सकता है। शायद हां। जो शिक्ष्‍ाक या शिक्षिका इसे पढ़ रहे हों तो वे इस बात पर जरूर गौर करें।

** राजेश उत्‍साही

(इस लेख का एक संपादित रूप में http://thatshindi.oneindia.in/cj/rajesh-utsahi/ जनसंवाद में प्रकाशित हुआ है।)

8 comments:

  1. राजेश भाई यह सच है ऐसे शिक्षक आगे कभी अपने जीवन मे नही जान पाते कि उन्होने क्या गुनाह किया था । लेकिन उन्हे सम्वेदनशीलता का पाठ कौन पढाएगा?

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  2. शरदभाई इसीलिए मैंने यह पोस्‍ट लिखी। शायद हम सबको यह बीड़ा उठाना चाहिए कि सहज तरीके से ऐसी कह‍ानियां भी सामने लाएं। हो सकता है कुछ का हृदयपरिवर्तन हो जाए।

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  3. असंवेदनशीलता आज पूरे समाज में घुन की तरह लग गया है, उसके लिए सिर्फ शिक्षकों को ही क्यों दोष दिया जाए?
    वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

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  4. असंवेदनशीलता आज पूरे समाज में घुन की तरह लग गया है, उसके लिए सिर्फ शिक्षकों को ही क्यों दोष दिया जाए?
    वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

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  5. क्षमा करें काव्‍या जी यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। अगर असंवदेनशीलता सब जगह है तो हमें उस पर भी उंगली रखनी होगी।

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  6. dear rajesh bhai
    its very touching and very true for all generations . at this teachers day my feelings are also like yours.just two days ago i was also written a critical piece on teachers role in the society .i will send it on your mail .

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  7. इससे सभी को सीख लेनी चाहिये

    हरीश

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  8. उत्साही जी, मैं आपके लेख से सौ फ़ीसदी सहमत हूँ । मैं अच्छे और बुरे शिक्षकों के कारण शिक्षा-जगत में आया।इस पर अपने अनुभव विस्तार से लिखूंगा।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...