Wednesday, June 16, 2010

‘अ’ का जादू: शादी लड्डू(3)

छब्बीस में से दो रिश्ते इतनी दूर तक चले गए थे कि उनके टूटने की आवाज मुझे अभी तक कहीं अंदर सुनाई देती है। यह अजब संयोग है कि दोनों के नाम से शुरू होते हैं और इतना ही नहीं नाम भी एक ही है। बस इतना फर्क है कि इनमें से एक भोपाल से थी, तो दूसरी! चलिए अब शहर के नाम में क्या रखा है। कुछ भी रख लीजिए। एक  का रिश्ता हमारे घर वालों ने तोड़ा तो दूसरी का उनके घर वालों ने। दोनों में ही मैंने अपने आपको बहुत दुखी पाया। 



दूसरे रिश्ते की बात पहले करते हैं क्योंकि वह पहले आया था। लड़की के माता-पिता और दादी हमारा और हमारे घर का मुआयना करने होशंगाबाद आए। लड़की के पिता रेल्वे में थे। लड़की की दादी भी एक रसूखदार विभाग में रसूखदार पोस्ट पर थीं। घर में उनकी ही चलती थी। वे लोग तड़के नर्मदा एक्सप्रेस से आए थे और देर रात को उसी गाड़ी से वापस जाने वाले थे। इतना समय पर्याप्त था हर तरह से हमारा परीक्षण और निरीक्षण करने के लिए। वे सब संतुष्ट थे। हमारे चाल-चलन के बारे में भी उन्होंने मोहल्ले में तफशीश कर ली थी। हमारे लिए तसल्ली की बात यह थी कि हम उनकी सब कसौटियों पर खरे उतरते थे। शाम होते-होते बात यहां तक पहुंच गई थी कि लड़की की मां और हमारी माताजी एक-दूसरे को बकायदा समधिन कहकर पुकारने लगीं थीं। आपको याद दिला दूं कि यह जमाना था ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म का। यहां तक सब कुछ उस जमाने की हैप्पी एंडिंग फिल्म की तरह सम्पन्न हुआ। 

वे की फोटो लाए थे।  फोटो देखकर हम तो दिल दे बैठे थे। हां औपचारिक रूप से एक-दूसरे को देखना बाकी था। हमारे अनुरोध पर वे फोटो छोड़ गए । लगभग महीने भर तक हम फोटो को हरदम एकटक निहारते रहे। पता नहीं कितने सपने देखे , फोटो से बतियाये। हमारी दीवानगी का अंदाजा आप लगा सकते हैं। वह जमाना फोन और मोबाइल फोन का नहीं था। वरना एसएमएस के जरिए शायद हम दिल के जज्बात उन तक पहुंचा भी देते। ले-देकर एक खत ही माध्यम था। पर खत लिखने की मनाही थी। केवल खत का इंतजार कर सकते थे, सो किया। 

खत आया भी लेकिन यह कि हमारी तथाकथ्रित दादी सास ने अपने वीटो का प्रयोग करते हुए हमें  रिजेक्ट  टोकरी में फेंक दिया था। कारण वही कि हमारे पास सरकारी नौकरी नहीं थी।

पत्र लिखने का कीड़ा तो हमारे दिमाग में बचपन से ही था। और इधर सम्‍पादक के नाम पत्र लिख-लिखकर हम बहुत अभ्‍यास कर चुके थे। तो हमारे पिताश्री ने जो जवाब दिया वह दिया,  हमने भी एक तीखा पत्र लिखा। हमने उनसे पूछा कि यह बात तो आपको पहले से ही मालूम थी,फिर आपने जवाब देने में महीना भर क्यों लगाया। महीने भर तक हमें आपने सब्ज़बाग दिखाए और फिर उन्हें एक झटके में उजाड़ दिया। हमें पता था कि उसका कोई जवाब अब आना नहीं है। 

पर हां वह पत्र ने भी पढ़ा। आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता।  संयोग देखिए  इन साहिबा का विवाह हमारे एक मित्र महोदय से ही हुआ। जब हमारा जिक्र वहां निकला तो बात दूर तक जानी ही थी। ने हमारे मित्र से कहा मेरी शादी भले ही आपसे हो गई हो। मैंने जितना इनके बारे में सुना और उनके पत्र से महसूस किया उससे मैं इनसे प्रभावित हूं। मैं इनसे एक बार मिलना चाहती हूं। 

पर मिलना इतना आसान नहीं होता है न। मिलने का संयोग कोई पंद्रह-सोलह साल बाद ही हुआ। अब वे अपनी दुनिया में सुखी हैं और हम अपनी। तो यह थी पहली के साथ की दास्तान। 

दूसरी के साथ क्या हुआ यह अगली किस्त में ।

3 comments:

  1. इतने सिलसिले वार ढंग से, अभी तक, सभी प्रस्ताव याद रखना भी अपने आप में कम आश्चर्य नहीं है. देखिये कहीं ब्लागिंग के चक्कर में भाभी जी नाराज न हो जांय ! हमें तो मजा आ ही रहा है..
    अब तो लड्डू का स्वाद जानने की उत्सुकता है...

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  2. कुछ ज्यादा ही हद हो गयी।

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  3. GAJAB KI YAADADAASHT HAI.EK-EK BAAT YAAD HAI AAPKO.
    UDAY TAMHANEY.
    BHOPAL.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...