Thursday, August 12, 2010

एक थी 'दोस्त' : भूले-बिसरे दोस्त (6)

तुम पता नहीं अब कहां हो। पर मैं भूला नहीं हूं। मैं कह सकता हूं कि तुम मेरी पहली स्‍त्री दोस्त थीं।*  ऐसी दोस्त जिसके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर सकता था,बिना किसी झिझक के। तुम भी स्कूल या कॉलेज की दोस्त नहीं थीं। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे, एक ही दफ्तर में।

तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें  उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।



तुमने एक दिन अखबार में देखकर इस नौकरी के लिए आवेदन कर दिया था। तुम्हें विश्वास नहीं था कि तुम चुन ली जाओगी। पर जब चुन ली गईं तो सबसे पहले मां ने ही कहा था कि बिटिया हमारी तरफ नहीं अपनी तरफ देख, उड़ जा। तुम ने मां की बात मान ली थी। तुम घर से दूर, तीन सौ किलोमीटर दूर निकल आईं थीं।

बड़े शहर से एक छोटे से कस्बे में। यह अस्सी का दशक था। जवान लड़की कहीं घर लेकर अकेली रहे, यह किसी क्रांति से कम नहीं था। पर कुछ संयोग ऐसा हुआ कि तुम्हें आफिस में ही एक कमरा मिल गया था। हमारा छोटा-सा ही आफिस था और हम गिनती के कुल पांच तो लोग ही थे।

हमें काम के सिलसिले में आसपास की बस्तियों में जाना होता था। तुम साइकिल चलाना भी नहीं जानतीं थी। मैंने तुम्हें सिखाया था। तुमने मुझे अपने जीवन की हर घटना बताई थी। तुम से बात करते हुए कई बार लगता था कि तुम कितनी भोली हो। मुझे आश्चर्य होता था कि तुम्हें वो छोटी-छोटी बातें भी नहीं पता थीं, जो आमतौर पर उस समय के किशोर-किशोरियां भी जानते थे। तुम कहती थीं, मैं तो कैद में थी। मुझे कैसे मालूम होता। मैंने खुली हवा में सांस कभी ली ही नहीं। फिर मैं सोचता एक लड़की जो कॉलेज जाकर पढ़ाई करके भी आ गई, वह अपनी ही दुनिया की कितनी बातों से अनजान है। शायद तुम्हारा यह अनजानापन ही था,जिसकी वजह से तुम दुनिया को जानने की ललक में मेरी अच्छी दोस्त, बन गई थीं। हां, हम दोस्त ही तो थे,सिर्फ दोस्त। हमने दोस्ती की मर्यादा का कभी भी उल्लघंन नहीं किया था। हां, एक तरह का लगाव हमारे बीच था,एक-दूसरे का ख्या‍ल रखने का। एक-दूसरे की खुशी में खुश होने का और दुख में दुखी होने का।

तुम मुझसे कुछ तीन-चार साल बड़ी थीं। तुम मेरे घर भी आया करती थीं। मेरी नानी को तुम बहुत पसंद थीं। नानी जब-तब मुझे छेड़ा करती थीं, पसंद हो तो बात करुं। फिर नानी तो नहीं, बात ही बात में मैंने एक दिन तुम्हारे सामने विवाह का प्रस्ताव  रख दिया था। लेकिन तुमने उतनी ही विनम्रता से मना कर दिया था। इसलिए नहीं कि तुम मुझे पसंद नहीं करतीं थीं या इसलिए नहीं कि तुम मुझसे बड़ी थीं, इसलिए कि तुम्हें पता था तुम्हारे परिवार के लोग इसके लिए हरगिज तैयार नहीं होंगे। बात कुछ हद तक सही भी थी।

मुझे तुम्हारी दो बातें सबसे ज्यादा पसंद थी, एक तुम्हारी खनखनाती हुई हंसी और दूसरा तुम्हारा धीरज।

तुम्हें याद है एक बार हमें एक कार्यशाला के सिलसिले में दूसरे कस्‍बे में जाना था। हम अपना सामान लेकर बस में चढ़े। सामान रख भी दिया। पर बैठने को जगह नहीं मिल रही थी,सो नीचे उतर आए। तय किया कि दूसरी बस से जाएंगे। वह बस चली गई। तुम अपना बैग उठाना भूल गई थीं। जब यह बात पता चली तो मैं हमेशा की तरह परेशान हो उठा था। तुरंत आगे के कस्बे में कुछ परिचितों को फोन करके खबर की थी कि उस बस से वह बैग उतार लें। हम पीछे की दूसरी बस से आ रहे हैं। पूरे तीन घंटे मैं बस में बैठा चितिंत होता रहा।  अपने को कोसता रहा था कि मैंने तुम्हारे बैग का ध्यान क्यों नहीं रखा। पर तुम्हारे सांवले चेहरे पर परेशानी का कोई भाव नहीं था। तुम्हारी बड़ी-बड़ी आंखों में कोई भय नहीं था। तुम लगातार मुझे समझाती रहीं थीं, जैसे बैग तुम्हारा नहीं मेरा खोया था। तुम्हारा वह धैर्यवान रूप में आज तक नहीं भूला हूं।

भूला तो मैं यह भी नहीं हूं कि हम कस्बे के सिनेमाघर में साथ-साथ गाइड फिल्म देखने गए थे। तुम्हें इस फिल्म का गीत आज फिर जीने की तमन्ना है,आज फिर मरने का इरादा है बहुत अच्छा लगता था न। मुझे तो आज भी बहुत अच्छा लगता है। तुम्हें याद है, तुमने मेरे जन्मदिन पर मुझे एक डायरी दी थी, उसमें तुमने अपने हाथों से मेरा नाम लिखा था। उसमें मैं कविताएं लिखता था। वह डायरी अब भी मेरे पास है। इस बात को तीस साल से भी ज्यादा समय गुजर गया है।

यह नौकरी सिर्फ दो साल की थी। तुम ठंडी हवा के झोंके की तरह  आईं  और चली गईं । फिर तुमने ही पत्र लिखकर बताया था कि तुम्हारा विवाह तय हो गया है, पर तुम रिश्ते से बहुत खुश नहीं हो। पर साथ ही तुम्हें लगता था उसी में खुश रहना ही अब तुम्हारी नियति है। तुम्हांरे कहे अनुसार, शादी के बाद तो हमारे बीच कोई पत्र-व्यवहार हो ही नहीं सकता था, चाहे हम कितने ही अच्छे दोस्त क्यों न रहे हों। इसलिए फिर तुम्हारी कोई खबर नहीं मिली।

उम्मीद तो यही करता हूं कि तुम जहां भी हो शायद आज भी उतनी ही धैर्यवान होगी।
                                                                                                     0 राजेश उत्साही

*बोलेतो बिंदास  के रोहित जी की टिप्‍पणी पढ़कर - मैं भी दोस्‍त को स्‍त्री या पुरुष के खांचे में बांटकर नहीं देखता। पर कई बार हमें समाज में प्रचलित या कि स्‍थापित हो गई परिभाषाओं का ध्‍यान भी रखना पड़ता है।  कम से कम अस्‍सी के दशक में एक स्‍त्री और पुरुष के संबंधों को कोई भी केवल दोस्‍त की नजर से नहीं देखता था। उनके बीच कोई न कोई रिश्‍ता खोजने की कोशिश होती ही रहती थी, शायद आज भी है। और यह भी सच्‍चाई ही है कि जिस दोस्‍त की मैं बात कर रहा हूं अगर उसे औरों से कुछ अलग करके देखना हो तो पहला वर्गीकरण तो यही होगा कि वह स्‍त्री थी। स्‍त्री  के लिए  एक पुरुष भाई,पिता,पति या प्रेमी या फिर ऐसा ही कोई  हो सकता है। उसी तरह स्‍त्री बहन,मां,पत्‍नी या फिर प्रेमिका या ऐसा ही कोई और रिश्‍ते  के नाम वाली हो सकती है। पर मुझे यह बहुत साफ था कि मैं उसे ऐसे किसी रिश्‍ते में बांधकर नहीं देखना चाहता था। और उससे भी यही अपेक्षा थी। मैं इस बात के लिए अपनी दोस्‍त का शुक्रगुजार हूं कि उसने मेरे इस आग्रह को स्‍वीकार किया। इसलिए यहां इस बात को कहने का मन हुआ कि स्‍त्री दोस्‍त।

6 comments:

  1. ऐसी सुन्दर यादें सारा जीवन साथ चलती है. अच्छा लगा पढ़कर.

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  2. itni mithi yaad, itna gahra lagaaw. itni badee pehchaan .....main kuch kahna nahi chahti, bas in yaadon ko naman kiya hai

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  3. तुम मेरी पहली स्‍त्री दोस्त थीं.....
    ये लाइन अस्सी के दशक को बयान करती है। हालांकी आज भी दोस्त को स्त्री औऱ पुरुष के तौर पर कहा जाता है। अंग्रेजी में गर्ल फ्रेंड का मतलब खास दोस्त के तौर पर होता है। ....
    पर दादा मेरी नजर में दोस्त सिर्फ दोस्त होता है चाहे कोई भी क्यों न हो..दोस्त न स्त्री होती है न पुरुष....
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    .......हां, हम दोस्त ही तो थे,सिर्फ दोस्त। हमने दोस्ती की मर्यादा का कभी भी उल्लघंन नहीं किया था...................
    दादा ये लाइने पढ़ते वक्त मैं समझ गया था कि ये कहीं लगाव था। आखिर मर्यादा का ख्याल आने का मतलब है कि लगाव...यानि विवाह की संभावना भी..। आज भी सोलह आने सच...

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    ..........तुम्हांरे कहे अनुसार, शादी के बाद तो हमारे बीच कोई पत्र-व्यवहार हो ही नहीं सकता था, चाहे हम कितने ही अच्छे दोस्त क्यों न रहे हों....................................
    दादा ये लाइने आज भी उतनी ही दुरुस्त हैं जितनी तब। अब सवाल है कि क्यों....क्योंकि भारतीय पुरुष पूरी तौर से आज भी अपनी पत्नी का कोई पुराना दोस्त या पुराना खास दोस्त बर्दाश्त नहीं कर पाता। अभी इस मामले में ज्यादातर हम हिंदुस्तानियो का दिल चुहे की तरह ही है।

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  4. Dada ek baat bataen ki aap kis akhbaar se jude hai...is sansmarnatmak rachna par comment dene se poorv pichhli paancho kadiyan bhi padunga...

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  5. गुल्लक समृद्ध हुआ। अच्छा लगा पढ़कर।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...