Sunday, September 18, 2011

मुन्‍ना के मुन्‍ने दिन


मुन्‍ना। हां मुन्‍ना नाम ही था उसका। अरे भई अभी मुन्‍ना ने स्‍कूल जाना कहां शुरू किया था। वह चार साल का ही तो था। मुन्‍ना के अम्‍मां-बाबूजी ने जरूर कुछ सोचा होगा कि जब उसे स्‍कूल में दाखिल करेंगे तो क्‍या नाम रखेंगे। अब मुन्‍ना को क्‍या मालूम कि क्‍या नाम सोचा था उसका ! उससे थोड़े ही पूछा था। बच्‍चों से कौन पूछता है कि तुम्‍हारा क्‍या नाम रखें। पूछते तो कितना मजा आता न ! 

Friday, September 2, 2011

अपने मियां मिठ्ठू

जाकिर अली 'रजनीश' से उस समय से परिचय है जब यह ब्‍लाग की दुनिया बनी नहीं थी। वे बालसाहित्‍य में नए-नए लेखक के रूप  में उभर रहे थे। मैं चकमक की सम्‍पादकीय टीम में था। साहित्‍य का हिस्‍सा एक तरह से मेरे ही जिम्‍मे था। चकमक के 100 अंक पूरे होने वाले थे। जाकिर की कई रचनाएं मैंने सखेद वापस कर दी थीं। एक दिन उनका एक तल्‍ख पत्र मिला। जिसमें उन्‍होंने लिखा था कि आप शायद नामचीन लोगों की रचनाएं ही प्रकाशित करते हैं। जिनके नाम के आगे डॉक्‍टर लगा होता है उनसे आप बहुत जल्‍द प्रभावित हो जाते हैं। वास्‍तव में ऐसा था नहीं। लेकिन इस बात को समझाना बहुत मुश्किल काम था और वह भी एक उभरते हुए लेखक को।