Saturday, December 29, 2012

2012 तुम न लौटना दुबारा

2012 तुम अब लौटकर न आना दुबारा। क्‍या दिया है तुमने सिवाय इस लानत और शर्मिन्‍दगी के। 'वह जो शेष था' वह भी नहीं रहा अब। अब तुम ही बताओ किस मुंह से..किस उम्‍मीद से.. हम स्‍वागत करें आते हुए तुम्‍हारे उत्‍तराधिकारी का..। लगता नहीं है कि वह भी कुछ लेकर आ रहा है..इस सड़ते हुए समाज के लिए..। अच्‍छा तो यही है कि यह जर्जर हो चुक व्‍यवस्‍था..  जल्‍द से जल्‍द नष्‍ट हो जाए ताकि उसके कबाड़ से आने वाले समय के लिए उपजाऊ खाद तो बने ।



लो मैं करता हूं तुम्‍हारे नाम क्रीक कबीले की रेड इंडियन कवियत्री ज्‍वॉय हार्जो की यह कविता-  

मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें
मेरे सुंदर भीषण भय ।
मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें, तुम थे
मेरे प्रिय और मेरे घृणित जुड़वां, पर
अब नहीं पहचानती तुम्‍हें जैसे कि खुद को।

मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें
उस समूचे दर्द के साथ जो अनुभव होता
मुझे अपनी बेटियों की मृत्‍यु पर ।
तुमसे नहीं बचा अब मेरा कोई खून का रिश्‍ता।

मैं लौटाती हूं तुम्‍हें श्‍वेत सिपाहियों को
जिन्‍होंने जलाकर खाक कर दिया मेरा मकान,
सिर अलग कर दिया है धड़ से मेरे बच्‍चों का
जिन्‍होंने किया है बलात्कार और गुदामैथुन
मेरी बहनों और भाइयों से।
मैं देती हूं तुम्‍हें उनको जिन्‍होंने
चुराया है हमारा खाना हमारी थाली से
मर रहे थे जब हम भूख से।

मैं तुम्‍हें मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें, भय
क्‍योंकि तुम पेश करते हो ये नजारे
मेरे सामने और मैं पैदा हुई थी
ऐसी आंखों के साथ जो कभी नहीं हो सकती बंद
मैं मुक्‍त करती हूं, तुम्‍हें , भय जिससे
तुम न रख सको मुझे और अधिक नंगा और
जमती हुई शिशिर के शीत में या घुटती हुई
ग्रीष्‍म के कंबल के नीचे।

मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें
मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें
मैं मुक्‍त करती हूं तुम्‍हें

मैं डरती नहीं हूं क्रुद्ध होने से।
मैं डरती नहीं हूं आनंदित होने से। 
मैं डरती नहीं हूं काली होने से।   
मैं डरती नहीं हूं श्‍वेत होने से।
मैं डरती नहीं हूं पूर्ण होने से।
मैं डरती नहीं हूं घृणा किए जाने से।
मैं डरती नहीं हूं प्‍यार किए जाने से।
भय,
प्‍यार किए जाने से,
प्‍यार किए जाने से।

ओह, तुमने घोंट दिया मेरा गला
पर मैंने ही दिया था तुम्‍हें वह पट्टा।
तुमने निकाल ली मेरी अंतडि़यां
पर मैंने ही दिया था तुम्‍हें चाकू।
तुम मुझे निगल गए,
पर मैंने ही डाल दिया था खुद को आग में।
तुमने दबोचकर गिरा दिया मेरी मां को और किया उससे बलात्‍कार
पर मैंने ही दी थी तुम्‍हें वह गर्म चीज।

मैं लेती हूं खुद को वापस,
भय।

अब नहीं रहे तुम मेरी छाया
मैं नहीं पकडूंगी तुम्‍हें अपने हाथ से
तुम नहीं रह सकते अब
मेरी आंखों, मेरे कानों,मेरी वाणी
मेरे पेट में या मेरे दिल,
मेरे दिल,
मेरे दिल में।

पर आओ मेरे पास,
भय
मैं जीवित हूं और तुम हो इतना डरे हुए मृत्‍यु से।
(पहल पुस्तिका रेड इंडियन कविताएं से साभार। अनुवाद: वीरेन्‍द्र कुमार बरनवाल)
                                  0 प्रस्‍तुति : राजेश उत्‍साही

5 comments:

  1. समय चक्र चलता रहेगा इसलिए 2013 तो आएगा ही..पर हम कब कुछ हद तक इंसान हो पाएंगे पता नहीं

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  2. जब वे दिन नहीं रहे , तो ये दिन भी नहीं रहेंगे .
    समय कभी एक सा नहीं रहता।
    शुभकामनायें।

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  3. नहीं .................... मैं मुक्त नहीं कर सकती, अपनी मुक्ति लेकर रहूंगी

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  4. सच जाते-जाते बहुत बड़ा दुःख दे गया 2012..
    ..बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति के लिए आभार..
    नववर्ष सबके लिए मंगलमय हो यही कामना है ..
    आपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाये..सादर

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