Sunday, March 1, 2015

पुराने होते शहर में नए दोस्‍त



इस नए शहर की नई नौकरी में आज छह साल पूरे हो रहे हैं। 28 फरवरी, 2009 की शाम दिल्‍ली-बेंगलूरु सम्‍पर्क क्रांति से यहां पहुंचा था। उस साल भी 1 मार्च को इतवार ही था, सो 2 मार्च को अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में अपना नया काम संभाला था।
50 साल तक एक जगह रहने के बाद किसी नई जगह पर जाकर अपने को वहां रमाना बहुत मुश्किल काम लगा था शुरू में। भोपाल में सब दोस्‍त-परिवार जन आसपास थे। पर यहां दफ्तर के साथियों को छोड़कर और कोई आसपास नहीं था। भाषा के कारण आसपड़ोस होकर भी नहीं था।
नया काम आभासी दुनिया का था यानी पोर्टल का। सो सचमुच की दुनिया की तुलना में इस दुनिया में ज्‍यादा वक्‍त बीतने लगा। तब तक नाम के लिए ब्‍लाग भर बनाया हुआ था। ब्‍लाग से परिचय बढ़ा। एक-एक करके तीन ब्‍लाग बन गए। तीन साल तक इन ब्‍लागों पर नियमित रूप से लिखा। फिर इनकी जगह फेसबुक ने ले ली।
ब्‍लाग और फेसबुक की इस आभासी दुनिया ने केवल बेंगलूरु ही नहीं देश भर में नए मित्र दिए। उनमें से कईयों से सचमुच की दुनिया में भी मिलना हुआ। इनमें से कई अपन को नाम से जानते थे, कईयों को अपन जानते थे। कईयों से अपन ने मिलने की इच्‍छा जताई और कईयों ने खुद मिलना चाहा।
ये मिलना-मिलाना जारी है।
इसी क्रम में 2015 जनवरी के आरंभ में फेसबुक पर एक स्‍टेटस पर एक टिप्‍पणी में संदेश मिला कि हम भी आपसे मिलना चाहते हैं, आप अपना पता दें। या फिर आप ही किसी दिन हमारे घर आ जाएं तो और अच्‍छा हो। संदेश भेजने वाली थीं रोली जोशी। उनके भाई ऋषि जोशी मेरी फेसबुक मित्र सूची में थे और रोली भी उनके माध्‍यम से ही शामिल हुई थीं। मैंने उन्‍हें संदेश भेजा कि बेहतर यही होगा कि मैं आपके घर आ जाऊं। आप अपना पता दीजिए। मुझे अगले ही हफ्ते उदयपुर-भोपाल की यात्रा पर जाना है और वहां से लौटकर मैसूर में एक विवाह समारोह में। तो फरवरी के दूसरे हफ्ते में ही यह संभव होगा। रोली ने इनबॉक्‍स में अपना पता और फोन नंबर दिया।
यात्रा से लौटकर मैंने उन्‍हें फोन लगाया कि मैं वापस आ गया हूं। बताएं हम कब मिल सकते हैं। पहले वेलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी तय हुई, फिर उनकी कुछ व्‍यस्‍तता के कारण वह रद्द हो गई। फिर 21 फरवरी का दिन तय हुआ।
रोली बेंगलूरु के व्‍हाइट फील्‍ड इलाके में रहती हैं। उन तक पहुंचने के लिए उनसे बस रुट आदि के नंबर लिए। व्‍हाइट फील्‍ड इलाके में बंद हो चुके बिग बाजार बस स्‍टॉप तक हमें अपने साधनों से पहुंचना था। मैं रोली से कह रहा था कि आप रास्‍ता बता दें मैं बस स्‍टॉप से पैदल आपके घर पहुंच जाऊंगा। लेकिन रोली कहती रहीं कि नहीं आपको दूर पड़ेगा। तय हुआ कि वहां आकर उनके पति हमें ले जाएंगे। और ऐसा ही हुआ। बल्कि पति ही नहीं उनके साथ उनकी बिटिया भी हमारी अगवानी करने आई थी। बस स्‍टॉप से उनका घर सचमुच दूर था।
कार में बिटिया पीछे की सीट पर बैठी और हम आगे। बैठते हुए अच्‍छा नहीं लगा। पर बिटिया के साथ बैठते तो शायद उनके पापा को अच्‍छा नहीं लगता। बहरहाल हम अपनी इस ग्‍लानि को कम करने के लिए बीच-बीच में उनसे कुछ कहते रहे।
बिटिया और उनके पापा के नाम तो हमें घर पहुंचकर ही पता चले। हालांकि इस बीच यह जानकारी हो गई कि श्रीमान रोली अल्‍मोड़ा के रहने वाले हैं और श्रीमती रोली का परिवार बरसों पहले पिथौरागढ़ से मध्‍यप्रदेश के उमरिया कस्‍बे में आकर बस गया था। बिटिया का नाम मौली और उनके पापा का नाम आशीष है। वे विप्रो में कम्‍प्‍यूटर इंजीनियर हैं और हमारी यूनीवर्स्‍टी के पास यानी इलेक्‍ट्रानिक सिटी में ही उनका भी दफ्तर है।
घर पहुंचकर हम रोली और आशीष जी से बातों में मशगूल हो गए। मौली कुछ देर हम लोगों के बीच बैठी चुपचाप सुनती रहीं, फिर उठकर अपने कमरे में चली गईं। जब हमारी बातों का कोटा खत्‍म हुआ तो हमने मौली को आवाज लगाई और कहा आइए अब हम बतियाएंगे।  
वे थोड़ी झिझक के बाद खुल गईं। मौली दूसरी कक्षा की छात्रा हैं। आमतौर पर यह होता है कि बच्‍चों से ज्‍यादा मां-बाप को इस बात का उत्‍साह होता है कि घर आए मेहमान को बच्‍चे के बारे में क्‍या-क्‍या बताया जाए। साथ ही वे बच्‍चे को लगातार याद दिलाते रहते हैं, अंकल को यह बताओ, अंकल को वह बताओ, आंटी को फलां पोइम सुनाओ। पर यहां उल्‍टा था। मौली खुद ही तय कर रही थीं कि वे क्‍या बताएंगी।
बहुत ही शांत स्‍वभाव की और धीरे-धीरे बोलने वाली मौली ने अपनी चित्रकारी दिखाई। चित्रकारी की अपनी रफ कॉपी भी दिखाईअपने स्‍कूल में प्रोजेक्‍ट के रूप में बनाया घर और दूसरी चीजें दिखाईं। अपना ब्‍लाग दिखाया, जिसमें कागज पर लिखे उनके अनुभवों को उनकी मां इनपुट करती हैं। अभी मौली इनपुटिंग सीख रही हैं। कागज से बनाया एक उल्‍लू भी दिखाया। उल्‍लू ठीक से बैठ नहीं पा रहा था, आशीष जी ने उसको बिठाने के लिए कुछ सुझाव मौली को दिए। यह देखकर अच्‍छा लगा कि वे एक सजग पिता की तरह सोचते हैं।
रोली ने भी अपनी एक वेबसाइट http://www.tulipgarden.in बनाई है। वे शादी से पहले उमरिया में एक स्‍कूल में कुछ समय अध्‍यापिका भी रही हैं। वेबसाइट की शुरूआत उन्‍होंने अपनी बिटिया के लिए कहानियां लिखने से की। उन्‍हें उसे सुनाने और पढ़ाने के लिए कहानियां चाहिए होती थीं। हिन्‍दी में भी और अंग्रेजी में भी। कुछ जो उन्‍होंने बचपन में सुनी थीं, उन्‍हें ही नए सिरे से लिखा, खुद ही अनुवाद किया। कहानियों के साथ उन्‍हें चित्रों की जरूरत भी महसूस हुई। नेट पर उन्‍हें मन माफिक चित्र नहीं मिले। आशीष जी ने उन्‍हें चित्र बनाने के लिए एक साफ्टवेयर लाकर दिया। कुछ ही दिनों में वे अपने मनमाफिक चित्र भी बनाने लगीं।
यह देखकर और अच्‍छा लगा कि न केवल आशीष जी एक सजग पिता और पति की भूमिका में अपने परिवार का ख्‍याल रखते हैं, रोली भी एक सजग मां की तरह मौली का बाकायदा ध्‍यान रखती हैं। उसे पढ़ाई में जहां मदद की जरूरत होती है वहां भरसक मदद करती हैं।
हमने भी कुछ सुझाव उन्‍हें दिए।
और फिर बारी आई उस भोजन की जिसका स्‍वाद बंगलूरु में गाहे-बगाहे ही चखने  को मिलता है। उत्‍तरभारतीय आलूगोभी की सूजी सब्‍जी,पूड़ी, राजमा और बूंदी वाला रायता। तो वह भी हमने छककर खाया।
और हां बदले में चलते-चलते हमने उन्‍हें अपना कविता संग्रह वह, जो शेष है.. भेंट किया। भई अब मित्रता की है तो इतना तो झेलना ही पड़ेगा न।
शुक्रिया रोली,मौली और आशीष जी इस दोस्‍ताना आवभगत के लिए।
(जिस फोटो में जो नहीं है, उसी ने वह फोटो खींचा है।)